नवरात्र व्रत की कथा
पुराने समय की बात है एक सुरथ नाम का राजा हुआ करता था। उसके राज्य पर एक बार शत्रुओं ने चढ़ाई कर दी। मंत्री गण भी राजा के साथ विश्वासघात करके शत्रु पक्ष के साथ जा मिले। जिसका परिणाम यह हुआ कि राजा परास्त हो गया, और वे दु:खी और निराश होकर तपस्वी वेष धारण करके वन में ही निवास करने लगा। उसी वन में उन्हें समाधि नाम का वैश्य मिला, जो अपनी स्त्री एवं पुत्रों के दुर्व्यवहार से अपमानित होकर वहां पर रहता था। दोनों में परस्पर परिचय हुआ। वे महर्षि मेधा के आश्रम में जा पहुंचे।महामुनि मेधा के द्वारा आने का कारण पूछने पर दोनों ने बताया कि, हम दोनों अपनो से ही अत्यंत अपमानित तथा तिरस्कृत है। फिर भी उनके प्रति मोह नहीं छूटता, इसका क्या कारण है? उन दोनों ने मुनि से पूछा। महर्षि मेधा ने बताया कि मन शक्ति के अधीन होता है। आदि शक्ति भगवती के दो रूप हैं-विद्या और अविद्या। प्रथम ज्ञान स्वरूपा हैं तथा दूसरी अज्ञान स्वरूपा। जो अविद्या (अज्ञान) के आदिकारण रूप से उपासना करते हैं, उन्हें विद्या-स्वरूपा प्राप्त होकर मोक्ष प्रदान करती हैं। राजा सुरथ ने पूछा-देवी कौन हैं ओर उनका जन्म कैसे हुआ।
महामुनि ने कहा-हे राजन्! आप जिस देवी के विषय में प्रश्न कर रहे हैं, वह नित्य-स्वरूपा तथा विश्वव्यापिनी हैं। उसके प्रादुर्भाव के कई कारण हैं। 'कल्पांत में महा प्रलय के समय जब विष्णु भगवान क्षीर सागर में अनन्त शैय्या पर शयन कर रहे थे तभी उनके दोनों कर्ण-कुहरों से दो दैत्य मधु तथा कैटभ उत्पन्न हुए। धरती पर चरण रखते ही दोनों विष्णु की नाभि-कमल से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा को मारने दोडे। उनके इस विकराल रूप को देखकर ब्रह्माजी ने अनुमान लगाया कि विष्णु के सिवा मेरी कोई शरण नहीं। किन्तु भगवान इस अवसर पर सो रहे थे। तब विष्णु भगवान हत उनके गयनों में रहने वाली योगनिद्रा की स्तुति करने लगे। परिणामस्वम्धप तमोगुण अधिष्ठात्री देवी विष्णु भगवान के नेत्र, नासिका, मुख तथा हृदय ये निकलकर आराधक (ब्रह्मा) के सामने खड़ी हो गई। योगनिद्रा के निकलते ही भगवान विष्णु जाग उठे। भगवान विष्णु तथा उन राक्षसों में पांच हजार वर्षो तक युद्ध चलता रहा।
महामुनि ने कहा-हे राजन्! आप जिस देवी के विषय में प्रश्न कर रहे हैं, वह नित्य-स्वरूपा तथा विश्वव्यापिनी हैं। उसके प्रादुर्भाव के कई कारण हैं। 'कल्पांत में महा प्रलय के समय जब विष्णु भगवान क्षीर सागर में अनन्त शैय्या पर शयन कर रहे थे तभी उनके दोनों कर्ण-कुहरों से दो दैत्य मधु तथा कैटभ उत्पन्न हुए। धरती पर चरण रखते ही दोनों विष्णु की नाभि-कमल से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा को मारने दोडे। उनके इस विकराल रूप को देखकर ब्रह्माजी ने अनुमान लगाया कि विष्णु के सिवा मेरी कोई शरण नहीं। किन्तु भगवान इस अवसर पर सो रहे थे। तब विष्णु भगवान हत उनके गयनों में रहने वाली योगनिद्रा की स्तुति करने लगे। परिणामस्वम्धप तमोगुण अधिष्ठात्री देवी विष्णु भगवान के नेत्र, नासिका, मुख तथा हृदय ये निकलकर आराधक (ब्रह्मा) के सामने खड़ी हो गई। योगनिद्रा के निकलते ही भगवान विष्णु जाग उठे। भगवान विष्णु तथा उन राक्षसों में पांच हजार वर्षो तक युद्ध चलता रहा।
अन्त में वे दोनों भगवान विष्णु के हाथों मारे गये। ऋषि बोले-अब ब्रह्माजी की स्तुति से उत्पन्न महामाया देवी की वीरता सुनो। | एक बार देवलोक के राजा इन्द्र और दैत्यों के स्वामी महिषासुर में सैंकड़ों वर्षों तक घनघोर संग्राम हुआ। इस युद्ध में देवराज इन्द्र परास्त हुए और महिषासुर इन्द्रलोक का राजा बन बेठा। तब हारे हुए देवगण ब्रह्माजी को आगे करके भगवान शंकर तथा विष्णु के पास गये और उनसे अपनी व्यथा-कथा कही। देवताओं की इस निराशापूर्ण वाणी को सुनकर विष्णु तथा शंकर को काफी क्रोध आया।
भगवान विष्णु के मुख तथा ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि के शरीर से एक पुंजीभूत तेज निकला, जिससे दिशाएं जलने लगीं। अन्त में यही तेज एक देवी के रूप में परिणत हो गया। देवी ने सभी देवताओं से आयुध, शक्ति तथा आभूषण प्राप्त कर उच्च स्वर से अट्टहासयुक्त . गगनभेदी गर्जना की जिससे तीनों लोकों में हलचल मच गई। क्रोधित महिषासुर देत्य सेना का व्यूह बनाकर इस सिंहनाद की ओर दोड़ा। उसने देखा कि देवी की प्रभा में तीनों देव अंकित हैं। महिषासुर अपना समस्त बल, छल लगाकर भी हार गया ओर देवी के हाथों मारा गया। इसके पश्चात् यही देवी आगे चलकर शुम्भ-निशुम्भ नामक असुरों का वध करने के लिये गौरी देवी के रूप में उत्पन्न हुई।
इन सब गरिमाओं को सुनाकर मेधा ऋषि ने राजा सुरथ तथा वाणक समाधि से देवी-स्तवन की विधिवत् व्याख्या की। इसके प्रभाव से दोनों एक नदी-तट पर जाकर तपस्या में लीन हो गये। तीन वर्ष बाद दुर्गा मां ने प्रकट होकर उन दोनों को आर्शीवाद दिया। जिससे वणिक सांसारिक मोह से मुक्त होकर आत्म-चिंतन में लीन हो गया ओर राजा ने शत्रु को जीतकर अपना खोया सारा राज्य और वैभव की पुनः प्राप्ति कर ली है।
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