Kabir ke Shabd
बोलता नजर नहीं आया म्हारे साधो बोलता।।
बिना मूल एक दरख़्त देखा, पात नजर नहीं आया।
जब मेरा मनवा हुआ दीवाना, तोड़ -२ फल खाया।।
बिना ताल एक सरवर देखा, नीर नजर नहीं आया।
जब मेरा मनवा हुआ दिवाना, कूद कूद के नहाया।।
बिना सूंड एक हाथी देखा, नैन नजर नहीं आया।
जब मेरा मनवा हुआ दीवाना, राक्षस मार गिराया।।
बन्द कोठरी में साधु तपता, हाड़ मांस नहीं पाया।
केह कबीर सुनो भई साधो, भेद कछु नहीं पाया।।

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