Kabir ke Shabd
नुगरा मत मिलियो, चाहे पापी मिलो हज़ार।।
नुगरामानष सत्संग में आवै, सुगरा मानष नित समझावै।
वो रहे लड़न ने त्यार।।
नुगरा मानस हो दुखदाई, घर में हो चाहे बाहर हो भाई।
वो लख पापों का भार।।
नुगरा मानस हो सै खोटा, पाड़ना ऊंट मरखना झोटा।
हो रूप कतई विकराल।।
नुगरा मानस चिचड़ बरगा, दूध पीवन का कोन्या चस्का।
पीवै खून की धार।।
कह कबीर सुनो भई साधो, नुगरा संग मत पाला बांधो।
तुम हो सद्गुरु की लार।।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें